ऋषि ने कहा है :...
''सूर्य आदि
देवताओं को नमस्कार''
सूर्य केंद्र है।
हम अपने चारों तरफ जो भी देखते हैं,
अगर उस सबके केंद्र को हम खोजें, तो सूर्य केंद्र है। सूर्य बुझ जाए तो हमारा पूरा जगत
अभी राख हो जाए। जीवन सूर्य है।
चाहे वृक्ष पर हरे पत्ते आनंद में मग्न हों, नाचते हों, और चाहे आकाश में
बादल सरकते हों; और चाहे जमीन पर कोई गीत गाता हो, बांसुरी बजाता हो; और चाहे बीज में अंकुर टूटता
हो; और चाहे झरने पहाड़ से उतर कर सागर की तरफ बहते हों, इस सबके आधार में सूर्य है। सूर्य बुझ जाए तो सब जीवन बुझ जाएगा। इसलिए
सूर्य आदि देवता कहा है; बाकी सब गौण हैं, सूर्य प्रमुख है। सूर्य यानी जीवन।
आपके भीतर श्वास चल रही है और खून में गर्मी है और हृदय में धड़कन है.. -सूरज
का हाथ है। अगर सूरज बुझ जाए तो हमें यह भी पता न चलेगा कि वह कब बुझ गया, क्योंकि उसके बुझने के
साथ हम बुझ गए होंगे। कोई इतिहास लिखने को बचेगा नहीं जो लिखे कि फलां तारीख को
सूरज बुझ गया; क्योंकि सूरज के बुझने के साथ हम सब
तत्काल बुझ जाएंगे।
इसलिए सूर्य को सदा ही केंद्र पर स्वीकृति मिली है--पर इसे "देवता"
क्यों कहते हैं?
विज्ञान इसे देवता नहीं कहता। और वैज्ञानिक को चिंता होती है कि यह.. यह
पैंथिइज्म है, यह हर
चीज में भगवान को देखने की क्या जरूरत है? सूरज सूरज है, इसमें देवता को देखने की क्या जरूरत है? लेकिन
भारतीय मनीषा कुछ और ढंग से सोचती है।
भारतीय मनीषा के सोचने का ढंग यह है कि जिससे हमें कुछ भी मिले, उसके प्रति अनुगृहीत होना
अनिवार्य है, क्योंकि अनुग्रह के बिना हमारे भीतर जो
श्रेष्ठतम है उसका आविर्भाव नहीं होता।
मनुष्य के भीतर जो भी श्रेष्ठतम है वह अनुग्रह के भाव से ही विकसित होता
है। जितना अनुग्रह का भाव भीतर होगा, उतनी ही मनुष्य की
आत्मा विकासमान होती है।
तो सूरज सिर्फ सूरज है..
जब हम ऐसा कहते हैं, ठीक है--
तो अनुग्रह का कोई संबंध निर्मित नहीं होता। ऐसा नहीं लगता कि सूरज से हमें
कुछ मिला है; ऐसा भी
नहीं लगता कि हम सूरज की फैली हुई किरणें हैं, ऐसा भी
नहीं लगता कि सूरज से हमारे हृदय की धड़कनों का कोई संबंध है; ऐसा नहीं लगता कि हम सूरज के ही फैले हुए हाथ हैं-- दस करोड़ मील दूर, लेकिन हैं हम सूरज की ही किरणें। वही धड़कता है हमारे भीतर, वही जीता है; उसकी ही ऊष्मा है, उसकी ही गर्मी है।
तो कोई संबंध निर्मित नहीं होता।
लेकिन यह बड़ी नासमझी की बात है; क्योंकि जिससे हमें जीवन मिलता हो, उसके प्रति अनुग्रह का भाव न हो तो हमारे भीतर जो श्रेष्ठतम है उसका विकास
न हो सकेगा।
ओशो मेरे ओशो
सर्वसार-उपनिषद-04
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